ह्रदय नारायण दीक्षित
हिन्दू विश्वास तर्क सिद्ध हैं। इसके भीतर एक बड़ी तर्कसारिणी है। कुछ विद्वान इसे अनेक विश्वासों का मिश्रण बताते हैं। डा० रामधारी सिंह ने ‘संस्कृति के चार अध्याय‘ (पृष्ठ 99) में लिखा है, ”हमारा धर्म न तो एक महात्मा से आया है, न किसी संप्रदाय से। सच तो यह है कि हिन्दू धर्म किसी एक विश्वास पर आधारित नहीं है प्रत्युत वह अनेक विश्वासों का समुदाय है।” यह बात अंशतः सही है कि हिन्दू धर्म किसी एक महात्मा या संप्रदाय से नहीं आया। लेकिन यह बात सही नहीं है कि हिन्दू धर्म अनेक विश्वासों का समुदाय या संकलन है। डा० दिनकर ने अपनी बात को सिद्ध करने के लिए भारतीय जनता की रचना को अनेक जातियों का परिणाम बताया। लिखा है ”अनेक जातियां समय समय पर इस देश में आती रहीं उसी प्रकार हिन्दुत्व भी इन विभिन्न जातियों के धार्मिक विश्वासों के योग से बना है।” (वही पृष्ठ 100) उनके विवेचन में हिन्दू धार्मिक समुदाय भारतीय जनता की रचना का मूल नहीं है। भारत के बाहर से यहां आई जातियां ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। सबके विश्वासों का समागम ‘हिन्दुत्व‘ है। उन्होंने ‘हिन्दुत्व‘ शब्द का ही प्रयोग किया है लेकिन हिन्दुत्व के निर्माण की प्रक्रिया का सरलीकरण उचित नहीं है।
हिन्दुत्व अनेक जातियों के मिलने से ही अस्तित्व में नहीं आया। दिनकर जी के विवेचन में जाति शब्द का प्रयोग आधुनिक काल की जन्मना जाति व्यवस्था के लिए नहीं हुआ। यहां विशेष भूक्षेत्रों में रहने वाले, विशेष समुदायों का नाम जाति है। ऐसे समुदायों के अपने देवी देवता भी होते है। डा० दिनकर का जोर बाहर से यहां आई जातियों पर है। इनके अनेक देवता देवी थे। उन्होंने लिखा है ”अनेक देवी देवताओं के आ मिलने के कारण बहुदेववाद हिन्दुत्व का अंग बन गया।” उस निष्कर्ष में भारत के बाहर से आई जातियां अपने साथ देवी देवता भी लाई। वे भारतीय देवी देवताओं से मिल गई। भारत बहुदेववादी बन गया। सच यह नहीं है। भारतीय देवतंत्र ऋग्वेद के रचनाकाल से भी प्राचीन है। ऋग्वेद में इन्द्र, अग्नि, वरुण, अदिति, मरुत, रूद्र, सूर्य आदि अनेक देवता है। ऋग्वेद ऐसे देवों की स्तुतियों से भरा पूरा है। श्रीराम गोयल ने ”विश्व की प्राचीन सभ्यतांए” (पृष्ठ 427) में भी वैदिक आर्यों के धर्म को बहुदेववादी बताया है। लिखा है, ”उनके अधिकांश देवता, जैसे सूर्य, अग्नि, वायु, उषा आदि विभिन्न प्राकृतिक शक्तियों का देवीकरण थे। वे तेज और प्रकाश के प्रतीक तथा उदार, सर्वज्ञ, कृपालु और अमर माने जाते थे। उनकी कल्पना मानव रूप में की गई थी, लेकिन सब देवताओं का मानवीकरण समानरूपेण पूर्णता प्राप्त नहीं कर पाया था। इस दृष्टि से वैदिक धर्म यूनानी धर्म से कुछ भिन्न था।
यूनान में देवताओं का मानवीकरण
यूनान के देवताओं का मानवीकरण भी विचारणीय है। गोयल ने लिखा है, ”यूनान में देवताओं का मानवीकरण भारत से बहुत आगे बढ़ गया था। देवताओं के व्यक्तित्व में स्पष्टता के अभाव के कारण वैदिक ऋषि उनमे प्रायः सामान गुणों का आरोपण कर देते थे और स्तुति करते समय किसी भी देवता को सर्वाेच्च घोषित कर देते थे। मैक्समूलर ने इस प्रवृत्ति को ’हॅे नोथीज्म’ नाम दिया है। बहुत से ऋषि समान गुणों वाले देवताओं का एक साथ उल्लेख भी कर देते थे – जैसे द्यावापृथिवी, मित्रावरुण, मरुद्गण, आदित्यगण तथा अश्विनी कुमार आदि। इतना ही नहीं कुछ ऋषि तो बहुदेववाद को ही चुनौती देने लगे थे। ऋग्वेद प्रथम मण्डल के 164वें सूक्त के रचयिता ने स्पष्टरूपेण उस ‘एक सत्‘ की कल्पना की है ‘जिसे ज्ञानी लोग इन्द्र, मित्र, वरुण, अग्नि, यम तथा मातरिश्वा आदि विभिन्न नामों से पुकारते हैं। इस प्रवत्ति को एकेश्वरवाद कहा जाता है।” एक सत् कल्पना नहीं अनभूत सिद्ध सत्य है।
वैदिक समाज का विश्वास एक सत्य में था
वैदिक धर्म को बहुदेववादी कहना उचित नहीं है। वैदिक समाज का विश्वास एक सत्य में था। ऋग्वेद (1-164) में बहुदेवों का उल्लेख है कि ”सत्य एक है विद्वान उसे इन्द्र, मित्र, वरुण, अग्नि, यम तथा मातरिश्वा आदि भिन्न भिन्न नामों से पुकारते हैं। हिन्दू चित्त बहुदेववादी नहीं बहुदेव उपासक था और है। श्रीराम गोयल ने ऋग्वैदिक देवों के मानवीकरण को अपूर्ण बताया है। यह सही नहीं है। देवता प्रकृति की शक्तियों का दैवीकरण थे। उन्हें मनुष्य रूप में विकसित किया गया था। गोयल के अनुसार मानवीकरण अधूरा था।” सच यह है कि देवों का मानवीकरण पूर्ण था लेकिन दर्शन के तल पर संपूर्ण अस्तित्व एक इकाई के रूप में दिखाई दे रहा था। सारे देवता नाम रूप से भिन्न होते हुए भी एक ही सत्य की अभिव्यक्ति जाने गए थे। ऋग्वेद में इन्द्र के लिए कहा गया है कि यह एक इन्द्र ही सभी भुवनों में प्रविष्ट होकर रूप रूप प्रतिरूप हो रहा है – इन्द्रैर्थको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो वभूवः। अदिति के लिए कहते है, ‘‘अदिति द्यौ हैं, आकाश हैं। माता हैं पिता हैं और पुत्र भी हैं।‘‘ यहां भी अदिति का मानवीकरण पूरा नहीं है, दैवीकरण अस्तित्वव्यापी है। गोयल को देवताओं के व्यक्तित्व में स्पष्टता का अभाव दिखाई पड़ता है। उनकी शिकायत है कि ”व्यक्तित्व की अस्पष्टता के कारण ऋषि किसी भी देवता को सर्वोच्च घोषित कर देते थे।” ऋषि अपनी तरफ से देवों का मानवीकरण पूरा कर चुके थे। वे दैवीकरण के बाद की मंजिल में थे और प्रत्येक देव को एक ही सत्य का विकास देख रहे थे। हिन्दुत्व इसी दर्शन का प्रसाद है।
भारत में दर्शन ने ही ज्ञान का नेतृत्व किया
सुमेरियन प्राचीन सभ्यता थी। बैबिलोनिया के इतिहास में प्रारम्भ से दो जातियां मिलती हैं। उत्तरी बैबिलोनिया या अक्काद में सेमेटिक और दक्षिणी बैबिलोनिया – सुमेर में सुमेरियन। सुमेरियन भारत में सिंधु घाटी में रहते थे। गोयल ने लिखा है कि ‘‘अनुमान किया गया है कि सम्भवतः सुमेरियन मूलतः भारत में सिंधु घाटी में रहते थे। वहां से वह बलूचिस्तान और फारस होते हुए दजला फरात की घाटियों में बसे। यह भी संभव है कि वे समुद्री मार्ग से सुमेर आए हों। एक आख्यान में कहा गया है कि ‘‘ओआनिज नामक देवता ने समुद्री मार्ग से आकर सुमेर के निवासियों को सभ्य बनाया (वही 33)।‘‘ कुछ विद्वान सुमेरी सभ्यता को भारतीय सभ्यता से प्राचीन मानते है। सुमेरियनों ने दार्शनिक सत्यों की उपेक्षा की। भारत में दर्शन ने ही ज्ञान का नेतृत्व किया। सृष्टि के उद्भव की सुमेरी मान्यता कुछ अंशो तक भारत से मिलती है। सुमेरी विश्वास था कि आदिकाल में केवल जल ही जल था। उनकी मान्यता में जल ‘नम्मू‘ देवी थी। इस जलराशि से एक दैवी पर्वत निकला। इस पर्वत का आधार ‘की‘ नाम की देवी (पृथ्वी) था और शिखर ‘अन‘ (आकाश) नाम का देवता था। प्रारम्भ में ‘की‘ (पृथ्वी) और ‘अन‘ (आकाश) संयुक्त थे। ‘‘की‘‘ के गर्भ से एनलिल (वायुदेव) का जन्म हुआ। इसने धरती और आकाश को अलग किया। ऋग्वेद में पहले धरती आकाश संयुक्त थे। मरुतों ने दोनों को अलग किया। सुमेरियन के अनुसार विश्व का निर्माण व पोषण देव समूह करते हैं। ऋग्वेद के अनुसार प्रकृति सदा से है। असत् अव्यक्त से सत् प्रकट हुआ। नासदीय सूक्त के अनुसार पहले सत् असत् नहीं थे। केवल ‘‘वह एक‘‘ था। उसी एक का विस्तार सृष्टि है।